इस सृष्टि में केवल एक ही देवत्व अर्थात देवाधिदेव है वह है आत्मा इसकी एक ही शक्ति है कुण्डलिनी शक्ति । इसे साधना, उपासना एवं योग के माध्यम से ही जागृत किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता इन्ही शक्तियों के विभिन्न कार्यों के करने से नाना रूप और नाम के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । हमारी सामाजिक व्यवस्था भी इसी आत्मोपसना पर आश्रित थी । ब्रम्हज्ञानी को ब्राम्हण, साधना में अपने विकारों से युद्ध करने वाले को क्षत्रिय, किसी सांसारिक कामना की पूर्ति के उद्देश्य से उपासना करने वाले को वैश्य एवं उपासना न करने वाले को शूद्र कहा जाता था । जातिगत आधारों की व्यवस्था बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से कर्म के आधार पर जाति प्रथा के नाम से जानी जाती थी । बीते हुए कालखण्ड में जन्म लेने वाला व्यक्ति जाति के आधार पर विभिन्न प्रकार की परेशानियों एवं संघर्ष से झूझता रहा है, जिसका विकृत रूप वर्तमान काल में हमें देखने को प्रायः मिलता है । हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों, शास्त्रो के अनुसार प्रथमदृष्टया ऋषियों की सृष्टि हुई एवं उन्हीं से जो पुत्रादि अर्थात संताने हुई वे बाद में अपनी जातिगत आधारों पर अपनी सुविधापूर्ण जीवनयापन विताने के लिए खण्ड-खण्ड में पृथक-पृथक हो गई, परन्तु उनमें छोटा-बड़ा ऊॅच-नीच का भेदभाव नही रहा । धीरे-धीरे समयानुसार जब धर्म का विघटन अपने स्वरूप को खोने लगा तो यह आडम्बर रहित युक्त धर्म कहलाने लगा एवं आत्मा के स्तर पर समाज से धीरे-धीरे इसका पतन होने लगा अर्थात लुप्त होता चला गया इसके कारण सामाजिक व्यवस्था में काफी सारे विकार उत्पन्न होने लगे ।
योगीराज श्री लाहिड़ी महाशय ने जाति-पाति के बन्धनों को तोड़कर, यह गुप्त क्रिया योग छोटे से छोटे समाज के व्यक्ति से लेकर उच्च वर्ग के समाज के तबके अर्थात ब्राम्हण तक सबको दिया । यह सारा मानव जाति का धर्म है क्योंकि इसमें प्राण की उपासना महत्वपूर्ण है जो सबके भीतर विधमान एवं सर्वदा है । इसमें छोटे-बड़े, गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं है ।
यह क्रिया योग महावतार बाबाजी के द्वारा योगीराज श्री लाहिड़ी महाशय को गुरू-शिष्य परंपरा के अधीन आज तक प्रचलन में है ।
कुण्डलिनी शक्ति एवं मूलाधार चक्र
गुदाद्वार से दो अंगुल ऊपर] लिंगमूल से एक अंगुल नीचे स्वस्तिक चिन्ह के समान चार अंगुल का चौकोर कन्द है। कन्द के मध्य में पीछे की ओर मुख किये हुये योनि है] जिनमें कुण्डलिनी विद्यमान है। कुण्डलिनी आठ स्थानों से टेढी है और स्वयं को पूर्णरूपेण लपेटे हुए पूंछ को अपने मुख में लेकर सुषुम्ना नाड़ी के मुख पर स्थित है यह सोई हुई नागिन के समान है और अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होती रहती है] स्वयं प्रकाश है। इसमें सर्प के समान अत्यन्त सूक्ष्म ग्रन्थियां हैं। वाग्देवी अर्थात् वाणी की अधिष्ठात्री देवी वीज रूप से यहीं स्थित मानी गई हैं यही वाणी का उत्पत्ति स्थान है।
कुण्डलिनी शक्ति को वैष्णवी शक्ति भी माना गया है। यह शुद्ध स्वर्ण आभा वाली है] सतोगुण] रजोगुण और तमोगुण को विकसित करती है। किसी किसी ग्रन्थ में कुण्डलिनी में स्थित श्रेष्ठ तेज को बीज कहा गया है क्रिया और विज्ञान से युक्त तेज वीज मूलाधार चक्र में योनि में स्थित है। बंधूक पुष्प के रंग वाला कामवीज भी वहीं स्थित माना गया है। इस कामवीज को कुछ लेखकों ने हंस भी कहा है। पिंगला नाड़ी के पास ही परमतेजोमय तेजवीज की स्थिति भी मानी गई है। इस प्रकार कतिपय योगियों ने मूलाधार में ही वाग्वीज] कामवीज और तेज अथवा शक्ति वीज की स्थिति मानकर] त्रिपुरभैरवी का स्थान वहीं मान लिया है। मूलाधार की चार दिशाओं में चार पंखुड़ियां हैं। इनकों वर्ण माला के चारों अक्षरों का (व] श] ष] और स) उत्पत्ति स्थान माना गया है। इस कमल को कुल कहा गया है जो कि स्वयंभूलिंग से युक्त है और स्वर्ण आभावाला है। यहां का सिद्ध चिन्ह हाथी तथा अधिष्ठात्री देवी डाकनी हैं। मूलाधार चक्र के बीच में योनि है और योनि में कुण्डलिनी हैं जिसके ऊपर प्रकाशमय तेजबीज स्वतंत्र रूप से भ्रमण करने वाला और इस प्रकार कुण्डलिनी की परिक्रमा करने वाला माना गया है।
इस मूलाधार चक्र में जो ध्यान करता है] उसे प्रथम दादुरी सिद्धि प्राप्त होती है। तत्पश्चात् भूमि से ऊपर उठने की सिद्धि मिलती है। कान्तिमय शरीर] उत्कृष्ट जठराग्नि] आरोग्य] कार्यपटुता एवं अंगों की क्रियाशीलता बढ़ती है। साधक भूत भविष्य की सभी बातों का ज्ञाता हो जाता है। साधक शास्त्रों के सत्य अर्थ अर्थात् रहस्य को जान जाता है। जिन शास्त्रों को न कभी सुना हो न पढ़ा हो उनका रहस्य भी जानने लगता है। सरस्वती देवी साधक की वाणी में नृत्य करने लगती है। मंत्र-सिद्धि शीघ्र होने लगती है। ऐसे साधक को विजय वरण करती है। बुढ़ापा एवं मृत्यु कारक दोष समूह नष्ट हो जाते हैं अर्थात् कायाकष्ट और विस्मिृत आदि दोष नहीं उत्पन्न होते। अनेक प्रवृतिकारक गुणों का भी शमन हो जाता है। चित्त-शांति प्राप्त होती है। समभाव में स्थित व्यक्ति निर्लिप्त होकर कर्म करता रहता है। प्राणायाम करने वाले साधकों को कुण्डलिनी शक्ति का निरन्तर ध्यान करना चाहिये] क्योंकि योगी जब मूलाधार-स्थित स्वयंभूलिंग का ध्यान करने लगता है तो अनेकों दुःखो से छुटकारा पाने लगता है। ध्यान-सिद्धि और कुण्डलिनी-सिद्धि के पश्चात् दुःखपूर्ण संस्कारों एवं परिस्थितियों से छुटकारा पाने के लिए एक क्षण का ध्यान शक्तिशाली होता है। योगी जिस वस्तु की कामना करता है उसे सहज ही प्राप्त कर लेता है। शक्ति-तत्व के पूर्ण जागरण के पश्चात् कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाता । कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के पश्चात यदि निरन्तर एक वर्ष तक अभ्यास चलता रहे] तो संपूर्ण मुक्ति दायी तत्व प्राप्त होने लगते हैं।
मूलाधार चक्र के योनि-स्थान में जो स्वयंभूलिंग स्थित है] वह तंत्र शास्त्र का सर्व श्रेष्ठ तत्व है। इससे बड़ी शक्ति शरीर में अन्य कहीं नहीं है। अपने भीतर लिंग अर्थात् चिन्ह को छोड़कर वाह्य संसार में स्थितलिंगों और चिन्हों की जो व्यक्ति पूजा करता है] वह अपने घर की अथवा स्वयं प्राप्त महान् शक्ति को भूलकर शक्तिहीन वस्तुओं में जीवनी शक्ति की आशा करता हुआ भ्रमित रहता है। स्वयं में स्थित स्वंयभूलिंग की अर्चना निरालस्य होकर करनी चाहिये । छः महिनों के निरन्तर अभ्यास द्वारा सकल सिद्धियां प्राप्त होती है। शक्ति प्राप्ति के लिये अन्य किसी साधना का विचार करना व्यर्थ है। अभ्यास के कारण शीघ्र सुषुम्ना नाड़ी में वायु सहज भाव से प्रवेश करने लगती है। इसके बाद मन की गतियों पर विजय प्राप्त होने लगती है तथा वायु और विन्दु पर अधिकार प्राप्त होने लगता है इसके वाद मन की गतियों पर विजय प्राप्त हो जाती है कामनाओं पर पूर्ण विजय होने लगती है और एहिक तथा आमुष्मिकी सिद्धियां (लौकिक तथा पारलौकिक) प्राप्त होने लगती है।
स्वाधिष्ठान चक्र
लिंगमूल में मूलाधार-स्थान के ऊपर (पेडू में) स्वाधिष्ठान चक्र है जो लाल वर्ण के कमल के समान है। ६ दल हैं जिन पर वर्णमाला के छः अक्षर (व] भ] म] य] र] ल) स्थित है। अर्थात् ६ अक्षरों का यह उत्पति स्थान है। बालनामक सिद्ध का स्थान है तथा अधिष्ठातृदेवी का नाम राकिनी है। दिव्य स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान स्थिर करने वाले व्यक्ति पर कामिनियां मोहित हो जाती हैं। विना पढ़े और विना सुने हुये. शास्त्रों का ज्ञान आविर्भूत होता. है। सब प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है। भ्रम-रहित होकर साधक पृथ्वी पर जीवन यापन करता है। मरण क्रिया को साधक बांध देता है और उसे बंधन में कोई नहीं डाल पाता । परम सिद्धि प्राप्त होती है] जिनमें अणिमादि आठ ऐश्वर्यो का समावेश है। वायु संचार भलीभांति होने के कारण शरीर में लाभदायी रसों की वृद्धि होती है। सहस्त्रार से टपकने वाले अमृत-रस की मात्रा बढ़ जाती है ।
मणिपुर चक्र
यह नाभि स्थान में स्थित तीसरा चक्र अथवा कमल है। दस पंखुड़ियां है और वर्णमाला के दस अक्षरों (ड] ढ] ण] त] थ] द] घ] न] प] फ]) का उत्पति स्थान है। विष्णु देवता अधिष्ठता हैं] मंदाकिनी सिद्धि है] किन्नरी देवी है।
इस चक्र पर ध्यान करने से योगी को पाताल सिद्धि प्राप्त होती है। अर्थात् नाभि के नीचे के सभी अंगों की शुद्धि और उन पर विजय मिलती है। सुख का धारा-प्रवाह अनुभव होता है। मनचाही घटनायें होने लगती हैं। दुःख और रोग का नाश हो जाता है। काल बाधा प्रभावित नहीं करती] परकाया प्रवेश की क्षमता प्राप्त होती है। सुवर्ण बनाने की क्रिया अथवा सिद्धि मिलती है। सिद्धों का दर्शन होने लगता है] औषधियों को तथा धरती में छिपे खज़ानों को जानने की शक्ति मिलती है।
अनाहत चक्र
चौथे कमल या अनाहत चक्र का स्थान हृदय है। यह बारह पंखुड़ियों वाला है। वर्णमाला के बारह अक्षरों (क] ख] ग] घ] ङ] च] छ] ज] झ] त्र] ट] ठ) का उत्पति स्थान है इस कमल पर अत्यन्त लाल रंग का परम तेज युक्त बाणलिंग स्थित माना गया है। यह सुख स्थान है] कामनाओं का अधिष्ठता है। इस कमल में ध्यान स्थिर करने पर दृष्ट और अदृष्ट का ज्ञान होने लगता है। जाने-अनजाने फल अथवा लाभ प्राप्त होते हैं। यह पिनाकी नामक सिद्ध का स्थान कहा गया है। कांकिनी अधिष्ठात् देवी कही गयी है। शरीर सुन्दर और आकर्षक हो जाता है। अप्रतिम ज्ञान] त्रिकाल ज्ञान] दूर छुति] दूरदृष्टि] स्वेच्छागमन आदि गुण प्राप्त होते हैं। सिद्धों और योगियों के दर्शन होने लगते हैं। आकाश गमन की क्षमता प्राप्त होती है एवं आकाशचारी सभी जीव मित्रभाव रखते हैं।
प्रथम वाणलिंग मूलाधार में है। दूसरा बाणलिंग का स्थान अनाहत है। तीसरा वाणलिंग आज्ञाचक्र में माना गया है। अनाहत चक्र में ध्यान स्थिर करने का माहात्म्य ब्रह्मादि सकल देवता भी ठीक २ वर्णन नहीं कर सकते। यह चक्र महान् रहस्यों का स्थान है।
विशुद्ध चक्र
यह पांचवा चक्र कंठस्थान में स्थित चक्र कहा जाता है। सोलह पंखुड़ियों वाला यह चक्र वर्णमाला के सोलह अक्षरों (अ] आ] इ] ई] ऊ] उ] ऋ] ल] ए] ऐ] ओ] औ] अं] अः) का उत्पति स्थान है। शुद्ध स्वर्ण की आभा वाला है।
यह छगल] नामक सिद्ध का स्थान है। शालिनी अधिष्ठातृदेवी है। इस चक्र में ध्यान करने से पांडित्य बढ़ता है। चारों वेदों का वर्णन करने में ब्रह्मा के समान योग्यता प्राप्त होती है। योगी के लिये इस चक्र का ध्यान गुणकारी है। योगी का मन जब इस चक्र में स्थिर हो जाता है] देवताओं के दर्शन होने लगते हैं। बाह्य वस्तुओं से चित्त निवृत होकर अपने अंतर में स्थित हो जाता है। शरीर की शक्तियों का ह्रास नहीं होता है। हजार वर्षों तक भी शरीर मजबूत और स्वस्थ रह सकता है। इस चक्र में ध्यान स्थिर करने वाला योगी सहस्त्र वर्षों का समय क्षण के समान बिता देता है अर्थात् समय का प्रवाह योगी को प्रभावित नहीं करता ।
आज्ञा चक्र
शरीर में स्थित चक्रों में छठवां चक्र आज्ञा चक्र है। यह भूमध्य में स्थित है। हंस की तरह शुभ्र आभा वाला है। महाकाल सिद्ध का स्थान है एवं हाकिनी देवी है। इस चक्र में शरत्कालीन चंद्रमा की कान्ति छायी
रहती है। दो पंखुड़ियों वाला है। वर्ण-माला के दो अक्षर (ह] क्ष) का उत्पत्ति स्थान है। परमहंस पुरूष का स्थान यहां माना गया है। इस चक्र को सिद्ध करने पर किसी दुःख का अनुभव नहीं होता । धैर्य बहुत बढ़ता है। यहां परमतेजमय देवता का भी स्थान कहा गया है और इस चक्र को सभी तंत्रों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। यहां ध्यान करने से परासिद्धि प्राप्त होती है।
तीसरे वाणलिंग की स्थिति इस आज्ञा चक्र में मानी गई है। मुक्तिदायक चक्र है। भगवान शंकर कहते हैं कि इस चक्र में ध्यान करने वाला मेरे समान हो जाता है] इसमें कोई संशय नहीं है
शास्त्रों में इड़ा नाड़ी को वरूणा नदी कहा गया है। पिंगला को असी नदी माना है। वरूणा और असी के बीच स्थित वाराणसी यही आज्ञा चक्र है। विश्वनाथ का निवास इसी में है। ऋषियों] महर्षियों एवं शास्त्रकारों द्वारा इस चक्र में माहात्म्य का अत्यधिक वर्णन किया गया है। इस चक्र को श्रेष्ठतम चक्र बताया है। मेरूदण्ड के सहारे स्थित सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार तक गई है। सुषुम्ना ही गंगा कही गई है। यह वायें नासापुट के पास से गुजरती है और आज्ञा चक्र के दायें होकर जाती है। वाराणसी में तीनों नदियों की जैसी स्थिति है] उसी की कल्पना यहां की गयी है।
सहस्त्रार
ब्रह्मरन्ध्र में स्थित कमल सप्तम चक्र है। इसमें एक हजार पंखुड़ियां हैं। सहस्त्रार कंदरूपी है। कंद में योनि स्थान है। योनि में चंद्रमा की स्थिति है। योनि त्रिकोणकार है और इससे जीवन पोषक अमृत टपकता है। चन्द्रमा से अमृत रस बहकर इड़ा नाड़ी में गिरता है। यह अमृत-धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है । यह इड़ा नाड़ी आंज्ञाचक्र
के दाहिने होकर वायें नासापुट में आती है इड़ा का उद्गम स्थान अथवा आरम्भ स्थान नासापुट है। पिंगला का उद्गम दक्षिण नासापुट है और सुषुम्ना का उद्गम ब्रह्मरन्ध्र है।
कंद रूपी मूलाधार की योनि में सूर्य है । सूर्य से कठोर विष अथवा ताप प्रवाहित होता है] जिसकी गर्मी पिंगला नाड़ी द्वारा शरीर में फैलती है। यह तेज रूपी विप दक्षिण नासापुट में पिंगला से प्रवाहित होकर आता है। इड़ा अधोवाहिनी है और पिंगला ऊध्वाहिनी है। सुषुम्ना निश्चेष्ट है] जो प्राणायाम की साधना द्वारा संचारित की जाती है। इसमें होकर कुंडलिती शक्ति ऊपर एवं नीचे दोनों दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। आज्ञाचक्र में पीठत्रय माना गया है क्योकि वहां से पिंगला] इड़ा और सुषुम्ना तीनों गुजरती है। पीठत्रय में नाद-बिन्दु और शक्ति का सुमेल है। आज्ञाचक्र अर्थात् पीठत्रय में ध्यान स्थिर करने वाला योगी अपने पूर्व जन्मों का स्मरण प्राप्त कर लेता है। यक्ष] गन्धर्व] अप्सरायें आदि ऐसे ध्यान-सिद्ध योगी के अधीन हो जाते हैं। उस योगी की चरण सेवा सभी जीव उसके वशीभूत होकर करते हैं। इस आज्ञाचक्र में ध्यान के साथ-साथ योगी अपनी जिव्हा को उलट कर लंबिका के पीछे गड्डे में प्रवेश करा देते हैं] अर्थात् ध्यान के साथ-२ खेचरी मुद्रा लगा लेते हैं।
मन का स्थान आज्ञा चक्र में है। यदि चंचल मन अपने स्थान पर थोड़ी देर के लिये भी स्थिर होने लगे तो योगी के पाप-संस्कार-समूह नष्ट होने लगते हैं। आज्ञा चक्र में ध्यान करने से अनेक फल प्राप्त होते हैं । वासनाओं के बन्धनों से मुक्ति मिलती है और योगी प्रसन्नता प्राप्त करता है । मृत्यु के समय जो योगी आज्ञाचक्र में ध्यान करता है
परमात्मा में लीन होता है। बैठे] चलते] सोते] खाते यहां तक कि सांस लेते हुये भी जो योगी आज्ञा चक्र में ध्यानरत रहता है वह पाप कर्म करता हुआ भी पाप-संस्कार ग्रहण नहीं करता । द्वन्द्वों से मुक्त आत्म-प्रकाश से युक्त होता है। भगवान शंकर कहते हैं कि आज्ञाचक्र के माहात्य का वर्णन में भी पूरी तरहं नहीं कर सकता। ब्रह्मादि देवता भी इस चक्र का वर्णन अंशमात्र ही कर पाते है। अब तव वर्णित सभी गुण] ऐश्वर्य और सिद्धियां आज्ञा चक्र में ध्यान करने से प्राप्त हो सकती है।
तालुमूल के ऊपर सहस्त्रार कमल अथवा चक्र है । सुषुम्ना का आरम्भ इसी चक्र के छिद्र (योनि) से होता है। सुषुम्ना का मुख नीचे मूलाधार में स्थित है] जहां के योनि-स्थान में सुषुम्ना समाप्त होती है। शरीर की सभी नाड़ियों की यह आश्रय है। भूतमयी सृष्टि का बीज यही सुषुम्ना है। यही ब्रह्म-मार्ग प्रदान करने वाली भी है।
तालुमूल के ऊपर जो सहस्त्रार-पद्य का कंद है उसमें स्थित योनि पीठ की ओर मुंह करके यह स्थित है। योनि के छिद्र में सुषुम्ना का मूल है । ब्रह्मरन्ध्र से मूलाधार तक फैली हुई तंतु के समान सुषुम्ना में कुंडलिनी शक्ति का चालन होता है। सुषुम्ना के भीतर चित्रा नाड़ी स्थित रहती है, उसी में ब्रह्मरन्ध्रादि की कल्पना करनी चाहिये लेकिन सुषुम्ना लिखने की पद्धति बन गई है। चित्रानाड़ी इतनी महान है कि उसके चिन्तन मात्र से पापमय संस्कार नष्ट होने लगते हैं।
कुंडलिनी शक्ति अपनी पूँछ को अपने मुख में रखकर सुषुम्ना द्वार को आच्छादित करके सोई रहती है] इसीलिये सुषुम्ना नाड़ी में वायु का आवागमन नहीं होता । योगी बायु-संचार करना चाहता है और इसी एक उद्देश्य-प्राप्ति के लिये अनेक क्रियायें करता है। जब तक सुपुम्ना नहीं जागृत होती तभी तक भ्रमों का अस्तित्व रहता हैं। सभी नाड़ियों को छोड़
कर, योगी केवल एक ही वात की साधना करता है कि सुषुम्ना के मुख को कुंडलिनी छोड़े और सुषुम्ना में वायु-संचार किसी प्रकार से भी हो जाये।
मूलाधार में स्थित त्रिकोणाकार योनि के बायें कोण से इड़ा, दाहिने कोण से पिंगला तथा योनि छिद्र के मध्य से सुषुम्ना का सम्वन्ध है। केवल सुषुम्ना ही ब्रह्मरन्ध्र तक जाने वाली नाड़ी है। अच्छे साधक निस्सन्देह जानते हैं कि अनेक वन्धनों से मुक्ति तभी मिलती है जव शक्ति का सम्बन्ध शिव से इस सुषुम्ना मार्ग द्वारा हो जाता है।
जैसे गंगा और यमुना के मध्य से सरस्वती गुप्त रूप से स्थित है और जैसे अनेक संगम में स्नान करने वाला श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है] उसी प्रकार योगी के लिये इन तीनों इड़ा] पिंगला और सुषुम्ना का संगम प्राप्तः करना महत्वपूर्ण है। यमुना काले रंग की है] गंगा श्वेत है] सरस्वती गुप्त रंग वाली है। इनके संगम रूपी प्रयाग राज में मनसहित स्नान करने वाला श्रेष्ठ मार्गगामी होता है और सब पापो को भस्म करके ब्रह्ममय हो जाता है। संगम पर पितृ-तर्पण का बड़ा महत्व बताया गया है। नाड़ीत्रय के कर्म का जागृत करना ही पितृतारक क्रिया है।
तीनों नाड़ियों और योग भाषा में वर्णित तीन नाड़ियों के संगम की तरह हमारे कर्मो की भी एक त्रिवेणी है। नित्य] नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों का आचरण विचार पूर्वक एवं लगन पूर्वक करना चाहिये। तीनों नाड़ियों के संगम पर भी उसी प्रकार योगी को बारबार अपने मन को स्नान कराना चाहिये। जो व्यक्ति एक वार संगम पर स्नान कर लेता है दिव्य सुख का अनुभव करता है। योगी अपने सभी प्रकार के संस्कारों एवं पापमय को भस्म करते हुये] इस शरीर स्थित त्रिवेणी में वारबार स्नान करता है। पवित्र तथा अवपवित्र सभी अवस्थाओं में यह योग साधना रूपी स्नान लाभदायी है । स्नान शुद्धि कारक है इसलिये योगी चाहे जिस भाव
में हो, त्रिवेणी के स्नान हेतु प्रयत्नशील रहता है । मृत्यु के समचर जैसे त्रिवेणी में शरीर का विसर्जन मुक्तिदायक कहा गया है] उसी प्रकार योगी का मन मृत्युकाल में यदि त्रिवेणी में स्थित होता है तो योगी मुक्ति का अधिकारी हो जाता है। तंत्र शास्त्र मे इन तीन नाड़ियों के क्रिया के समान अन्य कोई वस्तु रहस्यमय नहीं है । इन्हीं तीनों मे सृष्टि के वन्धन एवं मुक्तिहारिणी शक्तियां निहित हैं। इन रहस्यों को अनाधिकारी को बताने से लाभ के बदले हानि होती है। उसी प्रकार सहस्त्रार में ध्यान स्थिर करने से भी अनेक लाभ होते हैं ।
साधक का मन यदि एक क्षण के लिये सहस्त्रार में टिका रह जाये तो पापमय विचार नष्ट होने लगते हैं। पतन करने वाले विचारों का त्याग ही मुक्ति की साधना है। जिसका मन जिसमें लीन होता है अथवा रमता है, उसी को प्राप्त करता है अर्थात् उसी राह पर चलता है। श्रेष्ठ योगी अणिमादि ऐश्वर्यो को भोगकर मुझसे एकाकार हो जाता है। ब्रह्मरन्ध्र एवं सहस्त्रार को भली भांति जानने से व्यक्ति सर्वशक्तिमान सत्ता का प्रिय पात्र बनता है। उसे पाप पर विजय प्राप्त होती है] मुक्ति-मार्ग का अधिकार मिलता है।
भगवान शंकर कहते हैं मैं भी साधक को विलक्षण ज्ञान प्रदान करता हूं। ब्रह्मादि देवताओं के लिये ब्रह्मरन्ध्र तथा सहस्त्रार का ज्ञान महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान की प्रयत्ननपूर्वक रक्षा करनी चाहिये । सृष्टि का रहस्य इस ज्ञान में है।
ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्त्र दल कमल में योनि स्थान के नीचे चन्द्र मंडल है। बुद्धिमान साधक इस चन्द्रमंडल का ध्यान करते हैं जिससे पृथ्वी पर योगियों को पूज्य स्थान प्राप्त होता है। योगी ऐसे गुणों को अपने मे जगा लेता है जिससे संसारी उसे मान देते हैं। योगी अपनी इच्छानुसार देवताओं के लिये पूज्य एवं सिद्धों में सर्व श्रेष्ठ सिद्ध बन सकता है ।
सिर के कपाल-विवर में दूध के समान तरल पद्धार्थ से भरा सागर स्थित है] वहीं स्थित चन्द्रमा का ध्यान करे । चन्द्रमा १६ कला से युक्त है। उस क्षीर सागर में चन्द्रमा के समान शीतल एवं सूर्य के समान दैदीप्यमान हंस विहार करता है। यह तारने वाला निरंजन तत्व प्रत्येक मानव शरीर के अन्दर है। निरन्तर अभ्यास करने पर निश्चित रूप से इस हंस का आभास ३ दिनों में साधक को प्राप्त हो जाता है। इसके दर्शन मात्र से साधक के पापमय संस्कार नष्ट होने लगते हैं। अज्ञात का ज्ञान होने लगता है चित्त शुद्धि होने लगती है। निरन्तर अभ्यास द्वारा महान पातकों के समूह भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। संसार में जीवों को प्रभावित करने वाले ग्रह] साधक के अनुकूल हो जाते हैं और ग्रहों से उत्पन्न होने वाले उपद्रव शान्त हो जाते हैं। वाधाएं शान्त होकर टल जाती हैं] और युद्ध आदि में विजय प्राप्त होती है। आकाशगमन और भूचरी सिद्धियां प्राप्त होने लगती हैं। माहात्म्य कहां तक कहा जाये। अन्य विचार सब व्यर्थ हैं क्योंकि ध्यान से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। सतत् अभ्यास द्वारा ही सिद्धियां मिलती हैं, सोचने विचारने और अनेक कर्म करने से नहीं। भगवान शंकर प्रतिज्ञा पूर्वक कहते हैं कोई भी साधक] मेरे समान बन सकता है।
योग-शास्त्र के अध्ययन में एवं योग की क्रियायों में लगे हुये सभी योगियों को शरीर के ऊपरी सिरे पर स्थित] दिव्य सहस्त्र दल कमल ही योगसिद्धि देने वाला है। पिण्ड रूपी इस शरीर की क्रियायों से बाहर मुक्तिदायक तत्व शिरोभाग में स्थित है। इसे क्षीर सागर एवं विष्णु स्थान भी कहा गया है और इसे ही महेश्वर का निवासस्थान कैलास भी कहा गया है। यही स्थान तंत्रशास्त्र में अकुल कहा गया है] क्योंकि यह अविनाशी है। क्षय एवं वृद्धि की क्रियाओं से रहित है तथा संसार लीला से
अप्रभावित है। इस स्थान के ज्ञान मात्र से संसार में भ्रमित व्यक्ति द्वन्द्व भावों से मुक्त हो जाता है। निरन्तर अभ्यास द्वारा] योगी भूत समूह को मारने एवं जीवित करने की शक्ति प्राप्त कर सकता है। सहस्त्र दल कमल के ऊपर क्षीर सागर में हंस के निवास स्थान का अनेकों रूपकों द्वारा वर्णन किया जाता है। मन लगाकर व्याधि रहित होकर] योगी यदि अपनी चेतना को हंस में स्थित कर दे तो पाप संस्कारों से उत्पन्न बाधाओं पर विजय प्राप्त हो जायेगी। जब चित्त वृत्तियां कुल स्थान में] जो परमेश्वर का सूक्ष्म रूप से द्योतक है] पूर्णतया लीन हो जाती हैं तो परमेश्वरी को समाधि प्राप्त होती है और चचलता पूर्णतया नष्ट हो जाती है। निरन्तर ध्यान के अभ्यास से योगी वाह्य जगत का विस्मरण कर लेता है। इस स्थिति में पहुंचने पर योगी को विचित्र सामर्थ्य प्राप्त होता है। इसी स्थान से निकले हुये अमृत रस का योगी निरन्तर पान करता रहता है। वार-बार मरने और जन्म लेने के विधान पर जिसे कुल कहा गया है-विजय प्राप्त होती है। कुंडलिनी शक्ति इसी अकुल स्थान में लीन होती है। चारों प्रकार की सृष्टि अंहज] वेदज] उद्भिज और पिन्डज योगी के लिये विलीन हो जाती है। जहां जाकर चित्तवृत्ति विषयों से हटकर पूर्ण आनन्द मे लीन होती है] उसी की साधना विचारशील योगी परिश्रमपूर्वक करता है।
जब तक चित्त-वृत्तियां पूर्णतया शान्त नहीं हो जाती] तब तक साधक योगी नहीं कहा जा सकता। चित्त-वृत्तियों के लीन होने पर ही अखंड ज्ञान रूपी निरन्जन की प्राप्ति होती है। अपने शरीर के बाहर अपने प्रतीक की उपासना, जो पहलें बताई गई है] सिद्ध करके अपने सिर के इस महत्वपूर्ण स्थान में लाकर निरन्तर चिन्तन करना चाहिये । प्रतीक आदि] अन्त और मध्य से परे है। करोडों चन्द्रमा के समान शीतल है। अभ्यास से इसकी सिद्धि प्राप्त होगी। आलस्यहीन होकर जो साधक एक वर्ष तक अपने प्रतीक का ध्यान प्रतिदिन करता रहता है] उसे शनैः शनैः सकल सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं । मन यदि आधे क्षण के लिए भी इस प्रकार
ध्यान में निश्चल हो कर टिक जाये तो पाप-संस्कार उसी क्षण नष्ट होने लगते है। जिसके दर्शन कर लेने पर मृत्युमय संस्कार से साधक पार हो जाता है] उसका अभ्यास प्रयत्नपूर्वक अनुष्ठान रूप में बताये हुए मार्ग पर करना चाहिये ।
भगवान शंकर कहते हैं कि ध्यान का माहात्म्य इतना विशाल है कि मैं भी पूर्ण वर्णन नहीं कर सकता। ध्यान की साधना के कारण ही साधक विचित्र वस्तुओं को पाने और देखने की शक्ति प्राप्त करता है। अणिमा आदि सिद्धियां अपने वश में कर लेता है। सृष्टि के सम्पूर्ण सम्भव लाभ प्राप्त होने लगते हैं] इसमें कोई संशय नहीं । हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग स्वयं में पूर्ण नहीं होते । उत्तम गुरु से अपने लिये उपयुक्त मार्ग प्राप्त करके योगी साधना करता है। विना मार्गदर्शक गुरु के बुद्धिमान साधक को हठयोग में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये।
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