इस सृष्टि में केवल एक ही देवत्व अर्थात देवाधिदेव है वह है आत्मा इसकी एक ही शक्ति है कुण्डलिनी शक्ति । इसे साधना, उपासना एवं योग के माध्यम से ही जागृत किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता इन्ही शक्तियों के विभिन्न कार्यों के करने से नाना रूप और नाम के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । हमारी सामाजिक व्यवस्था भी इसी आत्मोपसना पर आश्रित थी । ब्रम्हज्ञानी को ब्राम्हण, साधना में अपने विकारों से युद्ध करने वाले को क्षत्रिय, किसी सांसारिक कामना की पूर्ति के उद्देश्य से उपासना करने वाले को वैश्य एवं उपासना न करने वाले को शूद्र कहा जाता था । जातिगत आधारों की व्यवस्था बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से कर्म के आधार पर जाति प्रथा के नाम से जानी जाती थी । बीते हुए कालखण्ड में जन्म लेने वाला व्यक्ति जाति के आधार पर विभिन्न प्रकार की परेशानियों एवं संघर्ष से झूझता रहा है, जिसका विकृत रूप वर्तमान काल में हमें देखने को प्रायः मिलता है । हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों,शास्त्रो के अनुसार प्रथमदृष्टया ऋषियों की सृष्टि हुई एवं उन्हीं से जो पुत्रादि अर्थात संताने हुई वे बाद में अपनी जातिगत आधारों पर अपनी सुविधापूर्ण जीवनयापन विताने के लिए खण्ड-खण्ड में पृथक-पृथक हो गई, परन्तु उनमें छोटा-बड़ा ऊॅच-नीच का भेदभाव नही रहा । धीरे-धीरे समयानुसार जब धर्म का विघटन अपने स्वरूप को खोने लगा तो यह आडम्बर रहित युक्त धर्म कहलाने लगा एवं आत्मा के स्तर पर समाज से धीरे-धीरे इसका पतन होने लगा अर्थात लुप्त होता चला गया इसके कारण सामाजिक व्यवस्था में काफी सारे विकार उत्पन्न होने लगे ।
योगीराज श्री लाहिड़ी महाशय ने जाति-पाति के बन्धनों को तोड़कर, यह गुप्त क्रिया योग छोटे से छोटे समाज के व्यक्ति से लेकर उच्च वर्ग के समाज के तबके अर्थात ब्राम्हण तक सबको दिया । यह सारा मानव जाति का धर्म है क्योंकि इसमें प्राण की उपासना महत्वपूर्ण है जो सबके भीतर विधमान एवं सर्वदा है । इसमें छोटे-बड़े, गरीब-अमीर का कोई भेदभाव नहीं है ।
यह क्रिया योग महावतार बाबाजी के द्वारा योगीराज श्री लाहिड़ी महाशय को गुरू-शिष्य परंपरा के अधीन आज तक प्रचलन में है ।
Powered by
This website uses cookies.
We use cookies to analyze website traffic and optimize your website experience. By accepting our use of cookies, your data will be aggregated with all other user data.