सर्वप्रथम बिन्दु के तीन रूप हुए-धर्म-अधर्म, चार आत्मा, मातृ-मेय और प्रमा-त्रिपुटी । धर्म और अधर्म दो, आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्मा चार; मातृ, मेय, प्रमा-ये तीनों इस प्रकार नौ हुए । त्रिकोण और अष्टकोण यही नवयोन्यात्मक श्रीचक्र है । शेष सब कोणों और दलों का नवयोनियों में समावेश हो जाता है ।
श्री यंत्र भगवान शंकर और मॉं भगवती जो परा प्रक़ति है और उन्ही का विग्रह स्वरूप है स़स़ष्टि के प्रारम्भ में अद्वैततत्व प्रकाशस्वरूप एक ज्योति ही दो रू में परिणत हुयी यह जगत माता पिता शिव शक्ति के रूप में परिणत हुआ फिर इस जगतका स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए उस परम शक्ति में स्फुरण हुआ और सर्वप्रथम श्री यंत्र का आविर्भाव हुआ
यह एक परमकल्याणकारी सरल सुगम साधना है “श्रेयांसि बहु विघ्नानि“ के अनुसार ऐसे कल्याणकारी कार्यो में प्रायः विघ्नो की सम्भावना रहती है, इसलिये इसमें महागणपति उपासना अनिवार्य है ।
जैसे राजा से मिलने के लिये पहले मन्त्री से मिलना आवश्यक है वैसे ही मातंगी उपासना भी इसकी अंगभूत है । मातंगी पराम्बा राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी की मन्त्रिणी हैं । इनके श्यामला राजमातंगी आदि नाम है । ये भक्त के समस्त ऐहिक मनोरथ पूर्ण करती हैं ।
शिष्टानुग्रह और दुष्टनिग्रह के लिये वार्ताली का उपासना क्रम भी अनुष्ठेय है । ये पराम्बा की दण्डनायिका सेनाध्यक्षा हैं । इनके वाराही, वार्ताली, कोडमुखी आदि नाम है । ये साधक की सर्वप्रकार से रक्षा करती और शत्रुओं का दलन करती हैं । इस प्रकार इसमें गणपति-क्रम, श्री-क्रम, श्यामला-क्रम, वार्तालि-क्रम, परा-क्रम-ये पाॅंच क्रम विहित है ।
प्रातःकाल गणपति-क्रम, पूर्वान्ह में श्री-क्रम, अपरान्ह में श्यामला-क्रम, रात्रि में वार्ताली-क्रम और उषाकाल में ’परा-क्रम‘ का विधान है । इन पाॅंच क्रमों की ’सपर्या-पद्धति‘ भी प्रकाशित है । दीक्षाकाल में ही इनका गुरू द्वारा निर्देश होता है । इन क्रमों के प्रभाव से ही यह श्री विधा साधना भोग-मोक्ष -प्रदायनी कही गयी है । इस प्रकार श्री यन्त्र की पूजा मात्र से ही जीव शिव भाव को प्राप्त हो जाता है । योग एवं वेदान्त आदि साधनपथ सर्वसाधारण के लिये सुलभ नहीं; क्योंकि ये अत्यन्त क्लिष्ट और चिरकालसाध्य हैं । इसके विपरीत तान्त्रिक विधि के साधन सरल, सर्वजनोपयोगी तथा शीघ्र ही अनुभूति प्रदान करने वाले हैं । श्री यन्त्र की पूजा मात्र से आत्मज्ञान कैसे होता है, इसका संक्षिप्त परिचय देना हो तो कहा जाएगा कि समस्त साधन-सरणियों का चरम लक्ष्य है ’मनोनिग्रह‘ -मन की एकाग्रता । यदि उत्तमोत्तम साधन-मार्ग भी अपनाया गया, किंतु मन एकाग्र नहीं हुआ तो सारा प्रयास विफल है । ’मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।‘ सांसारिक व्यवहार से लेकर निर्गुण ब्रम्हज्ञान तक मन ही कारण है । मनोयोग ही समस्य कार्य-क्लापों में प्रधान है । श्री सदाशिवप्रोक्त आगत-साधना-सरणि में तो समस्त कियाएं ही मन के एकाग्र करने के लिए बतायी गयी हैं । श्री मद्भागवत में लिखा है -य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः । विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ।। अर्थात ’जो शीघ्र हृदयग्रन्थि का भेदन चाहता है, वह तान्त्रिक विधि से केशव की आराधना करे ।‘’केशव‘ यह उपलक्षण है, किसी देवता की साधना करें । ’श्री विधा-साधना‘ तन्त्र-शास्त्र में सर्वोच्च मानी गयी है । इसे भगवती पराम्बा के निर्बन्ध से भगवान विश्वनाथ ने प्रकट किया है । अतः इसमें मन को एकाग्र करने की विशिष्ट कियाएॅं समवेत की गयी हैं । देखिये, श्री यन्त्र की पूजा में मन को किस प्रकार एकाग्र करने की विलक्षण प्रक्रिया है- देवो भूत्वा यजेद् देवान् नादेवो देवमर्चयेत् । देवता बनकर ही देवता का पूजन करने का शास्त्र का आदेश है । इस पूजा में सर्वप्रथम भूतशुद्धि स्पष्ट विधान है । जिसमें प्राणायाम द्वारा हृदय में स्थित पापपुरूष का शोषण-दहनपूर्वक शाम्भव-शरीर का उत्पादन कर पन्चदश-संस्कार,प्राणप्रतिष्ठा, मातृकादि-न्यासों से मन्त्रमय शरीर बनाया जाता है, जिससे देवभाव की उत्पत्ति होती है । तन्त्रों में महाषोढा न्यासादि का महाफल लिखा है-’एंव न्यासकृते देवि साक्षात् परशिवो भवेत्‘ । इस प्रकार स्वस्थ मन, स्वच्छ वस्त्र और सुगन्धित वस्तुओं से सुरभित वातावरण में यह पूजा की जाती है ।
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